राम प्रसाद 'बिस्मिल'
राम प्रसाद 'बिस्मिल' | |
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११ जून १८९७ से १९ दिसम्बर १९२७ | |
रामप्रसाद 'बिस्मिल' | |
उपनाम : | 'बिस्मिल', 'राम', 'अज्ञात' व 'पण्डित जी' |
जन्मस्थल : | शाहजहाँपुर, ब्रिटिश भारत |
मृत्युस्थल: | गोरखपुर, ब्रिटिश भारत |
माता-पिता: | मूलमती/ मुरलीधर |
धर्म: | हिंदू |
आन्दोलन: | भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम |
प्रमुख संगठन: | हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन |
उपजीविका: | कवि, साहित्यकार |
राष्ट्रीयता: | भारतीय |
स्मारक: | अमर शहीद पं॰ राम प्रसाद बिस्मिल उद्यान,ग्रेटर नोएडा संग्रहालय, शाहजहाँपुर |
राम प्रसाद 'बिस्मिल' (११ जून १८९७-१९ दिसम्बर १९२७) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी थे, जिन्हें ३० वर्ष की आयु में ब्रिटिश सरकार ने फाँसी दे दी। वे मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं मे शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे।
राम प्रसाद एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे। बिस्मिल उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे।
शुक्रवार ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी (निर्जला एकादशी) विक्रमी संवत् १९५४ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में जन्मे राम प्रसाद को ३० वर्ष की आयु में सोमवार पौष कृष्ण एकादशी (सफला एकादशी) विक्रमी संवत् १९८४ को वे शहीद हुए। उन्होंने सन् १९१६ में १९ वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा था। ११ वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया। उन पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला उससे उन्होंने हथियार खरीदे और उन हथियारों का उपयोग ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिये किया। ११ पुस्तकें ही उनके जीवन काल में प्रकाशित हुईं और ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त की गयीं।
बिस्मिल को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध की लखनऊ सेण्ट्रल जेल की ११ नम्बर बैरक में रखा गया था। इसी जेल में उनके दल के अन्य साथियोँ को एक साथ रखकर उन सभी पर ब्रिटिश राज के विरुद्ध साजिश रचने का ऐतिहासिक मुकदमा चलाया गया था।
अनुक्रम
[छुपाएँ]- 1पूर्वज
- 2प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा
- 3स्वामी सोमदेव से भेंट
- 4मैनपुरी षड्यन्त्र
- 5पलायनावस्था में साहित्य-सृजन
- 6पुन: क्रान्ति की ओर
- 7एच॰आर॰ए॰ का गठन
- 8"दि रिवोल्यूशनरी" (घोषणा-पत्र) का प्रकाशन
- 9काकोरी-काण्ड
- 10गिरफ्तारी और अभियोग
- 11फाँसी की सजा और अपील
- 12गोरखपुर जेल में फाँसी
- 13अस्थि-कलश की स्थापना
- 14फाँसी के बाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में तेज़ी
- 15बिस्मिल का क्रान्ति-दर्शन
- 16साहित्य रचना
- 17बिस्मिल के साहित्य का अनुसन्धान व प्रकाशन
- 18बिस्मिल पर अन्य व्यक्तियों के विचार
- 19टीका
- 20उद्धरण हेतु सन्दर्भ-सूची
- 21इन्हें भी देखें
- 22बाहरी कड़ियाँ
पूर्वज[संपादित करें]
बिस्मिल के दादा जी नारायण लाल का पैतृक गाँव बरबई था। यह गाँव तत्कालीन ग्वालियर राज्य में चम्बल नदी के बीहड़ों के बीच स्थित तोमरधार क्षेत्र के मुरैना जिले में था और वर्तमान में यह मध्य प्रदेश में है। बरबई ग्राम-वासी आये दिन अंग्रेज़ों व अंग्रेज़ी आधिपत्य वाले ग्राम-वासियों को तंग करते थे। पारिवारिक कलह के कारण नारायण लाल ने अपनी पत्नी विचित्रा देवी एवं दोनों पुत्रों - मुरलीधर व कल्याणमल सहित अपना पैतृक गाँव छोड़ दिया।[1] उनके गाँव छोड़ने के बाद बरबई में केवल उनके दो भाई - अमान सिंह व समान सिंह ही रह गये जिनके वंशज आज भी उसी गाँव में रहते हैं।[2] आज बरबई गाँव के एक पार्क में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा राम प्रसाद बिस्मिल की एक प्रतिमास्थापित कर दी गयी है। इसके अतिरिक्त मुरैना में बिस्मिल का एक मन्दिर भी बन गया है।[3]
कालान्तर में यह परिवार उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक नगर शाहजहाँपुर आ गया। शाहजहाँपुर में मुन्नूगंज के फाटक के पास स्थित एक अत्तार की दुकान पर मात्र तीन रुपये मासिक में नारायण लाल ने नौकरी कर ली। इतने कम पैसे में उनके परिवार का गुज़ारा नहीं होता था। बिस्मिल की दादी विचित्रा देवी ने अपने पति का हाथ बटाने के लिये अनाज पीसने का कार्य शुरू कर दिया। यह सिलसिला लगभग दो-तीन वर्षों तक चलता रहा।[1]
नारायण लाल तोमर जाति के क्षत्रिय थे किन्तु उनके आचार-विचार, सत्यनिष्ठा व धार्मिक प्रवृत्ति से स्थानीय लोग प्रायः उन्हें "पण्डित जी" ही कहकर सम्बोधित करते थे। इससे उन्हें एक लाभ यह भी होता था कि प्रत्येक तीज - त्योहार पर दान - दक्षिणा व भोजन आदि घर में आ जाया करता। इसी बीच नारायण लाल को स्थानीय निवासियों की सहायता से एक पाठशाला में सात रुपये मासिक पर नौकरी मिल गयी। कुछ समय पश्चात् उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी और रेजगारी (इकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी के सिक्के) बेचने का कारोबार शुरू कर दिया। इससे उन्हें प्रतिदिन पाँच-सात आने की आय होने लगी। नारायण लाल ने रहने के लिये एक मकान भी शहर के खिरनीबाग मोहल्ले में खरीद लिया और बड़े बेटे मुरलीधर का विवाह अपने ससुराल वालों के परिवार की ही एक कन्या मूलमती से करके उसे इस नये घर में ले आये। शादी पश्चात मुरलीधर को शाहजहाँपुर की नगरपालिका में १५ रुपये मासिक वेतन पर नौकरी मिल गयी। किन्तु उन्हें यह नौकरी पसन्द नहीं आयी। कुछ दिन बाद उन्होंने नौकरी त्याग कर कचहरी में स्टाम्प पेपर बेचने का काम शुरू कर दिया। इस व्यवसाय में उन्होंने अच्छा खासा धन कमाया। तीन बैलगाड़ियाँ किराये पर चलने लगीं व ब्याज पर रुपये उधार देने का काम भी करने लगे।[1]
प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा[संपादित करें]
११ जून १८९७ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में पं॰ मुरलीधर और उनकी पत्नी मूलमती को जन्मे बिस्मिल अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी - "यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।''[4] माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था अतः ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर र पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे अतः बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया। माँ मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे। रामप्रसाद के जन्म से पूर्व उनकी माँ एक पुत्र खो चुकी थीं अतः जादू-टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आँगन के दो-चार चक्कर लगाये और फौरन मर गया। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है। मुरलीधर के कुल ९ सन्तानें हुईं जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का भी देहान्त हो गया।[1]
बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उसका मन खेलने में अधिक किन्तु पढ़ने में कम लगता था। इसके कारण उनके पिताजी तो उसकी खूब पिटायी लगाते परन्तु माँ हमेशा प्यार से यही समझाती कि "बेटा राम! ये बहुत बुरी बात है मत किया करो।" इस प्यार भरी सीख का उसके मन पर कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पड़ता। उसके पिता ने पहले हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और न ही लिखकर दिखाया। उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था। इस बात का वह विरोध करते थे और बदले में पिता की मार भी खाते थे। हार कर उसे उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया। शायद यही प्राकृतिक गुण रामप्रसाद को एक क्रान्तिकारी बना पाये। लगभग १४ वर्ष की आयु में रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूकची से रुपये चुराने की लत पड़ गयी। चुराये गये रुपयों से उन्होंने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गयी थी। कुल मिलाकर रुपये - चोरी का सिलसिला चलता रहा और रामप्रसाद अब उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने का आदी हो गया था। संयोग से एक दिन भाँग के नशे में होने के कारण रामप्रसाद को चोरी करते हुए पकड़ लिया गया। खूब पिटाई हुई, उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गयीं लेकिन रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी। आगे चलकर जब उनको थोड़ी समझ आयी तभी वे इस दुर्गुण से मुक्त हो सके।[1]
रामप्रसाद ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर भी पड़ा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। पुजारी की देखा-देखी रामप्रसाद ने व्यायाम करना भी प्रारम्भ कर दिया। किशोरावस्था की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे भी छूट गयीं। केवल सिगरेट पीने की लत नहीं छूटी। परन्तु वह भी कुछ दिनों बाद विद्यालय के एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन की सत्संगति से छूट गयी। सिगरेट छूटने के बाद रामप्रसाद का मन पढ़ाई में लगने लगा। बहुत शीघ्र ही वह अंग्रेजी के पाँचवें दर्ज़े में आ गए।[1]
रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत से उसका सम्पर्क हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को दी। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।[1]
स्वामी सोमदेव से भेंट[संपादित करें]
रामप्रसाद जब गवर्नमेण्ट स्कूल शाहजहाँपुर में आठवीं कक्षा के छात्र थे तभी संयोग से स्वामी सोमदेव का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ।[1] मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को स्वामीजी की सेवा में नियुक्त कर दिया। यहीं से उनके जीवन की दशा और दिशा दोनों में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। एक ओर सत्यार्थ प्रकाश का गम्भीर अध्ययन व दूसरी ओर स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं॰ जगत नारायण 'मुल्ला' के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया। अधिवेशन के दौरान उनका परिचय केशव बलिराम हेडगेवार (छ्द्मनाम: केशव चक्रवर्ती), सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ। बाद में इन्हीं सोमदेव शर्मा ने किन्हीं सिद्धगोपाल शुक्ल के साथ मिलकर नागरी साहित्य पुस्तकालय, कानपुर से एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसका शीर्षक रखा गया था - अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास। यह पुस्तक बाबू गनेशप्रसाद के प्रबन्ध से कुर्मी प्रेस, लखनऊ में सन् १९१६ में प्रकाशित हुई थी।[5] रामप्रसाद ने यह पुस्तक अपनी माताजी से दो बार में दो-दो सौ रुपये लेकर प्रकाशित की थी। इसका उल्लेख उन्होंने अपनीआत्मकथा में किया है। यह पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गयी थी बाद में जब काकोरी काण्ड का अभियोग चला तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गयी थी। अब यह पुस्तक सम्पादित करके सरफरोशी की तमन्ना नामक ग्रन्थावली के भाग-तीन में संकलित की जा चुकी है और तीन मूर्ति भवन पुस्तकालय, नई-दिल्ली सहित कई अन्य पुस्तकालयों में देखी जा सकती है।[6]
मैनपुरी षड्यन्त्र[संपादित करें]
सन १९१५ में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे, १९१६ में एक पुस्तक छपकर आ चुकी थी, कुछ नवयुवक उनसे जुड़ चुके थे, स्वामी सोमदेव का आशीर्वाद भी उन्हें प्राप्त हो चुका था। एक संगठन उन्होंने पं॰ गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में मातृवेदी के नाम से खुद खड़ा कर लिया था। इस संगठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गयी। दल के लिये धन एकत्र करने के उद्देश्य से रामप्रसाद ने, जो अब तक 'बिस्मिल' के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे, जून १९१८ में दो तथा सितम्बर १९१८ में एक - कुल मिलाकर तीन डकैती भी डालीं, जिससे पुलिस सतर्क होकर इन युवकों की खोज में जगह-जगह छापे डाल रही थी। २६ से ३१ दिसम्बर १९१८ तक दिल्ली में लाल किले के सामने हुए कांग्रेस अधिवेशन में इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला-चिल्ला कर जैसे ही पुस्तकें बेचना शुरू किया कि पुलिस ने छापा डाला किन्तु बिस्मिल की सूझ बूझ से सभी पुस्तकें बच गयीं।
पण्डित गेंदालाल दीक्षित का जन्म यमुना किनारे स्थित मई गाँव में हुआ था। इटावा जिले के एक प्रसिद्ध कस्बे औरैया के डीएवी स्कूल में अध्यापक थे। देशभक्ति का जुनून सवार हुआ तो शिवाजी समिति के नाम से एक संस्था बना ली और हथियार एकत्र करने शुरू कर दिये। आगरा में हथियार लाते हुए पकड़े गये थे। किले में कैद थे वहाँ से पुलिस को चकमा देकर रफूचक्कर हो गये। बिस्मिल की मातृवेदी संस्था का विलय शिवाजी समिति में करने के बाद दोनों ने मिलकर कई काम किये। एक बार पुन: पकड़े गये, पुलिस पीछे पड़ी थी, भाग कर दिल्ली चले गये जहां उनका प्राणान्त हुआ। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में पण्डित गेन्दालाल जी का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है।
मैनपुरी षडयंत्र में शाहजहाँपुर से ६ युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर रामप्रसाद बिस्मिल थे किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये, तत्काल फरार हो गये। १ नबम्बर १९१९ को मजिस्ट्रेट बी॰ एस॰ क्रिस ने मैनपुरी षडयन्त्र का फैसला सुना दिया। जिन-जिन को सजायें हुईं उनमें मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को फरवरी १९२० में आम माफी के ऐलान में छोड़ दिया गया। बिस्मिल पूरे २ वर्ष भूमिगत रहे। उनके दल के ही कुछ साथियों ने शाहजहाँपुर में जाकर यह अफवाह फैला दी कि भाई रामप्रसाद तो पुलिस की गोली से मारे गये जबकि सच्चाई यह थी कि वे पुलिस मुठभेड़ के दौरान यमुना में छलाँग लगाकर पानी के अन्दर ही अन्दर योगाभ्यास की शक्ति से तैरते हुए मीलों दूर आगे जाकर नदी से बाहर निकले और जहाँ आजकल ग्रेटर नोएडा आबाद हो चुका है वहाँ के निर्जन बीहड़ों में चले गये। वहाँ उन दिनों केवल बबूल के ही बृक्ष हुआ करते थे; और ऊसर जमीन में आदमी तो कहीं दूर-दूर तक दिखता ही नहीं था।
पलायनावस्था में साहित्य-सृजन[संपादित करें]
राम प्रसाद बिस्मिल ने यहाँ के एक छोटे से गाँव रामपुर जागीर (रामपुर जहाँगीर) में शरण ली और कई महीने यहाँ के निर्जन जंगलों में घूमते हुए गाँव के गूजरों की गाय भैंसचराईं। इसका बड़ा ही रोचक वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा के द्वितीय खण्ड : स्वदेश प्रेम (उपशीर्षक - पलायनावस्था) में किया है। यहीं रहकर उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास बोल्शेविकों की करतूत लिखा। वस्तुतः यह उपन्यास मूलरूप से बांग्ला भाषा में लिखित पुस्तक निहिलिस्ट-रहस्य का हिन्दी - अनुवाद है जिसकी भाषा और शैली दोनों ही बड़ी रोचक हैं। अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बांग्ला पुस्तक यौगिक साधन का हिन्दी - अनुवाद भी उन्होंने भूमिगत रहते हुए ही किया था। यमुना किनारे की[1] जमीन उन दिनों पुलिस से बचने के लिये सुरक्षित समझी जाती थी अत: बिस्मिल ने उस निरापद स्थान का भरपूर उपयोग किया। वर्तमान समय में यह गाँव चूँकि ग्रेटर नोएडा के बीटा वन सेक्टर के अन्तर्गत आता है अत: उत्तर प्रदेश सरकार ने रामपुर जागीर गाँव के क्षेत्र में आने वाली वन विभाग की आरक्षित भूमि पर उनकी स्मृति में अमर शहीद पं॰ राम प्रसाद बिस्मिल उद्यान विकसित कर दिया है जिसकी देखरेख ग्रेटर नोएडा प्रशासन के वित्त-पोषण से प्रदेश का वन विभाग करता है।[7]
'बिस्मिल' की एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी स्थान पर अधिक दिनों तक ठहरते नहीं थे। कुछ दिन रामपुर जागीर में रहकर अपनी सगी बहन शास्त्री देवी के गाँव कोसमा जिला मैनपुरी में भी रहे। मजे की बात यह कि उनकी अपनी बहन तक उन्हें पहचान नहीं पायीं।[8] कोसमा से चलकर बाह पहुँचे। कुछ दिन बाह रहे फिर वहाँ से पिनहट,आगरा होते हुए ग्वालियर रियासत स्थित अपने दादा के गाँव बरबई (जिला मुरैना, मध्य प्रदेश) चले गये। उन्होंने वहाँ किसान के भेस में रहकर कुछ दिनों हल भी चलाया। पलायनावस्था में रहते हुए उन्होंने १९१८ में प्रकाशित अँग्रेजी पुस्तक दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन का हिन्दी - अनुवाद किया। उनके सभी साथियों को यह पुस्तक बहुत पसन्द आयी। इस पुस्तक का नाम उन्होंने कैथेराइन रखा था। इतना ही नहीं, बिस्मिल ने सुशीलमाला सीरीज से कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित कीं थीं जिनमें मन की लहरनामक कविताओं का संग्रह, कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी - कैथेराइन ब्रश्कोवस्की की संक्षिप्त जीवनी, स्वदेशी रंग व उपरोक्त बोल्शेविकों की करतूत नामक उपन्यासप्रमुख थे। स्वदेशी रंग के अतिरिक्त अन्य तीनों पुस्तकें आम पाठकों के लिये आजकल पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं।
पुन: क्रान्ति की ओर[संपादित करें]
सरकारी ऐलान के बाद राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने वतन शाहजहाँपुर आकर पहले भारत सिल्क मैनुफैक्चरिंग कम्पनी में मैनेजर के पद पर कुछ दिन नौकरी की उसके बाद सदर बाजार में रेशमी साड़ियों की दुकान खोलकर बनारसीलाल के साथ व्यापार शुरू कर दिया। व्यापार में उन्होंने नाम और नामा दोनों कमाया। कांग्रेस जिला समिति ने उन्हें लेखा परीक्षक के पद पर कार्यकारी कमेटी में ले लिया। सितम्बर १९२० में वेकलकत्ता कांग्रेस में शाहजहाँपुर काँग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। कलकत्ते में उनकी भेंट लाला लाजपत राय से हुई। लाला जी ने जब उनकी लिखी हुई पुस्तकें देखीं तो वे उनसे काफी प्रभावित हुए। उन्होंने उनका परिचय कलकत्ता के कुछ प्रकाशकों से करा दिया जिनमें एक उमादत्त शर्मा भी थे, जिन्होंने आगे चलकर सन् १९२२ में राम प्रसाद बिस्मिल की एक पुस्तक कैथेराइन छापी थी। सन् १९२१ के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में रामप्रसाद'बिस्मिल' ने पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव पर मौलाना हसरत मोहानी का खुलकर समर्थन किया और अन्ततोगत्वा गांधी जी से असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ करने का प्रस्ताव पारित करवा कर ही माने। इस कारण वे युवाओं में काफी लोकप्रिय हो गये। समूचे देश में असहयोग आन्दोलन शुरू करने में शाहजहाँपुर के स्वयंसेवकों की अहम् भूमिका थी। किन्तु १९२२ में जब चौरीचौरा काण्ड के पश्चात किसी से परामर्श किये बिना गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया तो १९२२ की गया कांग्रेस में बिस्मिल व उनके साथियों ने गांधी जी का ऐसा विरोध किया कि कांग्रेस में फिर दो विचारधारायें बन गयीं - एक उदारवादी या लिबरल और दूसरी विद्रोही या रिबेलियन। गांधी जी विद्रोही विचारधारा के नवयुवकों को कांग्रेस की आम सभाओं में विरोध करने के कारण हमेशा हुल्लड़बाज कहा करते थे। एक बार तो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर क्रान्तिकारी नवयुवकों का साथ देने पर बुरी तरह फटकार भी लगायी थी।[9]
एच॰आर॰ए॰ का गठन[संपादित करें]
जनवरी १९२३ में मोतीलाल नेहरू व देशबन्धु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली। नवयुवकों ने तदर्थ पार्टी के रूप में रिवोल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया। सितम्बर १९२३ में हुए दिल्ली के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में असन्तुष्ट नवयुवकों ने यह निर्णय लिया कि वे भी अपनी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में दखल देना शुरू करेंगे अन्यथा देश में लोकतन्त्र के नाम पर लूटतन्त्र हावी हो जायेगा। देखा जाये तो उस समय उनकी यह बड़ी दूरदर्शी सोच थी। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल, जो उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतन्त्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे हुए थे, राम प्रसाद बिस्मिल के सम्पर्क में स्वामी सोमदेव के समय से ही थे। लाला जी ने ही पत्र लिखकर राम प्रसाद बिस्मिल को शचींद्रनाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी से मिलकर नयी पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी। लाला जी की सलाह मानकर राम प्रसाद इलाहाबाद गये और शचींद्रनाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया।[10]
नवगठित पार्टी का नाम संक्षेप में एच॰ आर॰ ए॰ रखा गया व इसका संविधान पीले रँग के पर्चे पर छाप करके सदस्यों को भेजा गया। ३ अक्टूबर १९२४ को इस पार्टी (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन) की एक कार्यकारिणी-बैठक कानपुर में की गयी जिसमें शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी व राम प्रसाद बिस्मिल आदि कई प्रमुख सदस्य शामिल हुए। इस बैठक में पार्टी का नेतृत्व बिस्मिल को सौंपकर सान्याल व चटर्जी बंगाल चले गये। पार्टी के लिये फण्ड एकत्र करने में कठिनाई को देखते हुए आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों का तरीका अपनाया गया और पार्टी की ओर से पहली डकैती २५ दिसम्बर १९२४ (क्रिसमस की रात) को बमरौली में डाली गयी जिसका कुशल नेतृत्व बिस्मिल ने किया था। इसका उल्लेख चीफ कोर्ट आफ अवध के फैसले में मिलता है।[11]
"दि रिवोल्यूशनरी" (घोषणा-पत्र) का प्रकाशन[संपादित करें]
क्रान्तिकारी पार्टी की ओर से १ जनवरी १९२५ को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित एवं २८ से ३१ जनवरी १९२५ के बीच समूचे हिन्दुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित ४ पृष्ठ के पैम्फलेट "दि रिवोल्यूशनरी" में राम प्रसाद बिस्मिल ने विजय कुमार के छद्म नाम से अपने दल की विचार-धारा का लिखित रूप में खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गांधी जी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न भी किया था कि जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक कहता है वह अँग्रेजों से खुलकर बात करने में डरता क्यों है? उन्होंने हिन्दुस्तान के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेषी महात्मा के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए उनकी क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल हो कर अँग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आवाहन किया था। दि रिवोल्यूशनरी के नाम से अँग्रेजी में प्रकाशित इसक्रान्तिकारी (घोषणा पत्र) में क्रान्तिकारियों के वैचारिक चिन्तन*[12]को भली-भाँति समझा जा सकता है। इस पत्र का अविकल हिन्दी काव्यानुवाद[13] अब हिन्दी विकीस्रोत[14] पर भी उपलब्ध है।
काकोरी-काण्ड[संपादित करें]
दि रिवोल्यूशनरी नाम से प्रकाशित इस ४ पृष्ठीय घोषणापत्र को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगी। संयोग से शचीन्द्र नाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह घोषणापत्र अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे हीहावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच॰ आर॰ ए॰ के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये। उन्हें हजारीबाग जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो और भी अधिक बढ़ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को बिचपुरी तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। परन्तु उन्हें उनमें कुछ विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका।
इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल की आत्मा को अपार कष्ट हुआ। अन्ततः उन्होंने यह पक्का निश्चय कर लिया कि वे अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे, हिन्दुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल न डालेंगे।[15]
शाहजहाँपुर में उनके घर पर ७ अगस्त १९२५ को हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी[15] और ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० लोग, जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम),मुरारी शर्मा (वास्तविक नाम मुरारी लाल गुप्त) तथा बनवारी लाल शामिल थे, ८ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित राइफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता[16] भी साधारण पिस्तौलों से अधिक होती थी। उन दिनों ये माउजर आज की ए॰ के॰ - ४७ रायफल की तरह चर्चित थे। लखनऊ से पहलेकाकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गये। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रिगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गयी। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और डी॰ आई॰ जी॰ के सहायक (सी॰ आई॰ डी॰ इंस्पेक्टर) मिस्टर आर॰ ए॰ हार्टन[17] के नेतृत्व में स्कॉटलैण्ड की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।
गिरफ्तारी और अभियोग[संपादित करें]
सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक[18] लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।
काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा[19] (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच॰ आर॰ ए॰ का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को साक्ष्य न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये। बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। बिस्मिल ने, जो उस समय जिला काँग्रेस कमेटी के ऑडीटर थे, बनारसी पर पार्टी-फण्ड में गबन का आरोप सिद्ध करते हुए उसे काँग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलम्बित कर दिया था। बाद में जब गांधी जी १६ अक्टूबर १९२० (शनिवार) को शाहजहाँपुर आये तो बनारसी ने उनसे मिलकर अपना पक्ष रक्खा। गान्धी जी ने उस समय यह कहकर कि छोटी-मोटी हेरा-फेरी को इतना तूल नहीं देना चाहिये, इन दोनों में सुलह करा दी। परन्तु बनारसी बड़ा ही धूर्त आदमी था। उसने पहले तो बिस्मिल से माफी माँग ली फिर गांधी जी को अलग ले जाकर उनके कान भर दिये कि रामप्रसाद बड़ा ही अपराधी किस्म का व्यक्ति है। वे इसकी किसी बात का न तो स्वयं विश्वास करें न ही किसी और को करने दें।
आगे चलकर इसी बनारसी लाल ने बिस्मिल से मित्रता कर ली और मीठी-मीठी बातों से पहले उनका विश्वास अर्जित किया और उसके बाद उनके साथ कपड़े के व्यापार में साझीदार बन गया। जब बिस्मिल ने गान्धी जी की आलोचना करते हुए अपनी अलग पार्टी बना ली तो बनारसी लाल अत्यधिक प्रसन्न हुआ और मौके की तलाश में चुप साधे बैठा रहा। पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े का भेद जानकर ही बनारसी लाल को अप्रूवर (सरकारी गवाह) बनाया और बिस्मिल के विरुद्ध पूरे अभियोग में एक अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया। बनारसी लाल व्यापार में साझीदार होने के कारण पार्टी सम्बन्धी ऐसी-ऐसी गोपनीय बातें जानता था, जिन्हें बिस्मिल के अतिरिक्त और कोई भी न जान सकता था। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है।
लखनऊ जिला जेल, जो उन दिनों संयुक्त प्रान्त (यू॰पी॰) की सेण्ट्रल जेल कहलाती थी, की ११ नम्बर बैरक[20] में सभी क्रान्तिकारियों को एक साथ रक्खा गया और हजरतगंज चौराहे के पास रिंग थियेटर नाम की एक आलीशान बिल्डिंग में अस्थाई अदालत का निर्माण किया गया। रिंग थियेटर नाम की यह बिल्डिंग कोठी हयात बख्श और मल्लिका अहद महल के बीच हुआ करती थी जिसमें ब्रिटिश अफसर आकर फिल्म व नाटक आदि देखकर मनोरंजन किया करते थे। इसी रिंग थियेटर में लगातार १८ महीने तक किंग इम्परर वर्सेस राम प्रसाद 'बिस्मिल' एण्ड अदर्स के नाम से चलाये गये ऐतिहासिक मुकदमे में ब्रिटिश सरकार ने १० लाख रुपये[21] उस समय खर्च किये थे जब सोने का मूल्य २० रुपये तोला (१२ ग्राम) हुआ करता था। ब्रिटिश हुक्मरानों के आदेश से यह बिल्डिंग भी बाद में ढहा दी गयी और उसकी जगह सन १९२९-१९३२ में जी॰ पी॰ ओ॰ (मुख्य डाकघर) लखनऊ[22] के नाम से एक दूसरा भव्य भवन बना दिया गया। १९४७ में जब भारत आजाद हो गया तो यहाँ गांधी जी की भव्य प्रतिमा स्थापित करके रही सही कसर नेहरू सरकार ने पूरी कर दी। जब केन्द्र में गैर काँग्रेसी जनता सरकार का पहली बार गठन हुआ तो उस समय के जीवित क्रान्तिकारियों के सामूहिक प्रयासों से सन् १९७७ में आयोजित काकोरी शहीद अर्द्धशताब्दी समारोह के समय यहाँ पर काकोरी स्तम्भ का अनावरण उत्तर प्रदेश के राज्यपाल गणपतिराव देवराव तपासे ने किया ताकि उस स्थल की स्मृति बनी रहे।
इस ऐतिहासिक मुकदमे में सरकारी खर्चे से हरकरननाथ मिश्र को क्रान्तिकारियों का वकील नियुक्त किया गया जबकि जवाहरलाल नेहरू के रिश्ते में साले लगने वाले सुप्रसिद्ध वकील जगतनारायण 'मुल्ला' को एक सोची समझी रणनीति के अन्तर्गत सरकारी वकील बनाया गया।[23] जगत नारायण ने अपनी ओर से सभी क्रान्तिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने में कोई कसर बाकी न रक्खी। यह वही जगत नारायण थे जिनकी मर्जी के खिलाफ सन् १९१६ में बिस्मिल ने लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की भव्य शोभायात्रा पूरे लखनऊ शहर में निकाली थी। इसी बात से चिढ़ कर मैनपुरी षडयंत्र में भी इन्हीं मुल्लाजी ने सरकारी वकील की हैसियत से काफी जोर लगाया परन्तु वे राम प्रसाद बिस्मिल का एक भी बाल बाँका न कर पाये क्योंकि मैनपुरी षडयन्त्र में बिस्मिल फरार हो गये थे और दो साल तक पुलिस के हाथ ही न आये।
फाँसी की सजा और अपील[संपादित करें]
६ अप्रैल १९२७ को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने ११५ पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चाताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। फिर भी, इनमें से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है।
फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी को बहुत बाद में पुलिस गिरफ्तार कर पायी। विशेष जज जे॰ आर॰ डब्लू॰ बैनेट की अदालत में काकोरी षड़यंत्र का अतिरिक्त केस दायर किया गया और १३ जुलाई १९२७ को यही बात दोहराते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी। सेशन जज के फैसले के खिलाफ १८ जुलाई १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रज़ा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के॰ सी॰ दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया।
बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। बिस्मिल की इस तर्क क्षमता पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस को उनसे यह पूछना पड़ा - "मिस्टर रामप्रसाद! फ्रॉम विच यूनीवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ लाॅ?" (राम प्रसाद! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली है?) इस पर उन्होंने हँस कर कहा था- "एक्सक्यूज मी सर! ए किंगमेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री।" (क्षमा करें महोदय! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।) अदालत ने इस जवाब से चिढ़कर बिस्मिल द्वारा १८ जुलाई १९२७ को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने ७६ पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की। उसे पढ़ कर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। आखिरकार अदालत द्वारा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था।
काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिये "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया। फिर क्या था, पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: "मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाये हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।" उनके कहने का मतलब था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, बल्कि मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। इसके साथ ही यह चेतावनी भी दे डाली कि वे समुद्र की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन सी बड़ी बात है? भला इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो बिस्मिल के आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह नहीं की।
चीफ कोर्ट में शचीन्द्र नाथ सान्याल, भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल को छोड़कर शेष सभी क्रान्तिकारियों ने अपील की थी। २२ अगस्त १९२७ को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई॰ पी॰ सी॰ की दफा १२१ (ए) व १२० (बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा ३०२ व ३९६ के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में ५+५ = कुल १० वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का हुक्म हुआ। शचीन्द्र नाथ सान्याल, जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे। इसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। शचीन्द्र के छोटे भाई भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने अपील नहीं की और दोनों को ५-५ वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें १०-१० वर्ष से बढ़ाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी यथावत (७ - ७ वर्ष) कायम रहीं। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को ५ वर्ष से घटाकर ४ वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा (३ वर्ष) रामनाथ पाण्डेय को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से मुसाफिर मारा गया, की सजा १० से बढ़ाकर १४ वर्ष कर दी गयी। काकोरी काण्ड में प्रयुक्त माउजर पिस्तौल के कारतूस चूँकि प्रेमकृष्ण खन्ना के शस्त्र-लाइसेन्स पर खरीदे गये थे जिसके पर्याप्त साक्ष्य मिल जाने के कारण प्रेमकृष्ण खन्ना को ५ वर्ष के कठोर कारावास की सजा भुगतनी पड़ी।[24]
चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के सभी फाँसी (मृत्यु-दण्ड) प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश करने की सूचना दी। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया किन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया।
सेण्ट्रल कौन्सिल के ७८ सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला में हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल भेजा जिस पर प्रमुख रूप से पं॰ मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन॰ सी॰ केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त, आदि ने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ। अन्त में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः जजमेण्ट पर पुनर्विचार किया जा सकता है। चीफ कोर्ट ने अपने फैसले में भी यह बात लिखी थी। इसके बावजूद वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया।
अन्ततः बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज़ तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस॰ एल॰ पोलक के पास भिजवाये। परन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर बड़ी सख्त दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद बिस्मिल बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है। यदि उसे क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में सरकार को हिन्दुस्तान में शासन करना असम्भव हो जायेगा। इस सबका परिणाम यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।
गोरखपुर जेल में फाँसी[संपादित करें]
१६ दिसम्बर १९२७ को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय (अन्तिम समय की बातें) पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। १८ दिसम्बर १९२७ को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और सोमवार १९ दिसम्बर १९२७ (पौष कृष्ण एकादशी विक्रमी सम्वत् १९८४) को प्रात:काल ६ बजकर ३० मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी। जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रक्खा गया और फाँसीघर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार कर दिया।[25]
इस घटना से आहत होकर भगतसिंह ने जनवरी १९२८ के किरती (पंजाबी मासिक) में 'विद्रोही' छद्मनाम नाम से लिखा: "फाँसी पर ले जाते समय आपने बड़े जोर से कहा - 'वन्दे मातरम! भारतमाता की जय!' और शान्ति से चलते हुए कहा - 'मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे, बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे; जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे!' फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा - 'I wish the downfall of British Empire! अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!' उसके पश्चात यह शेर कहा - 'अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है!' फिर ईश्वर के आगे प्रार्थना की और एक मन्त्र पढ़ना शुरू किया। रस्सी खींची गयी। रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये।"
अपने लेख के अन्त में भगतसिंह लिखते हैं - "आज वह वीर इस संसार में नहीं है। उसे अंग्रेजी सरकार ने अपना सबसे बड़ा खौफ़नाक दुश्मन समझा। आम ख्याल यही था कि वह गुलाम देश में जन्म लेकर भी सरकार के लिये बड़ा भारी खतरा बन गया था और लड़ाई की विद्या से खूब परिचित था। आपको मैनपुरी षड्यन्त्र के नेता श्री गेंदालाल दीक्षित जैसे शूरवीर ने विशेष तौर पर शिक्षा देकर तैयार किया था। मैनपुरी के मुकदमे के समय आप भागकर नेपाल चले गये थे। अब वही शिक्षा आपकी मृत्यु का कारण बनी। ७ बजे आपकी लाश मिली और बड़ा भारी जुलूस निकला। 'स्वदेश' में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार आपकी माता ने कहा था - 'मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु पर प्रसन्न हूँ, दुःखी नहीं। मैं श्री रामचन्द्र जैसा ही पुत्र चाहती थी। वैसा ही मेरा 'राम' था। बोलो श्री रामचन्द्र की जय!'
इत्र फुलेल और फूलों की वर्षा के बीच उनकी लाश का जुलूस जा रहा था। दुकानदारों ने उनके शव के ऊपर वेशुमार पैसे फेंके। दोपहर ११ बजे आपकी लाश शमशान-भूमि पहुँची और अन्तिम-क्रिया समाप्त हुई। आपके पत्र का आखिरी हिस्सा आपकी सेवा में प्रस्तुत है - 'मैं खूब सुखी हूँ। १९ तारीख को प्रातः जो होना है उसके लिये तैयार हूँ। परमात्मा मुझे काफी शक्ति देंगे। मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिये फिर जल्द ही इस देश में जन्म लूँगा। सभी से मेरा नमस्कार कहें। दया कर इतना काम और करना कि मेरी ओर से पण्डित जगतनारायण (सरकारी वकील, जिन्होंने इन्हें फाँसी लगवाने के लिये बहुत जोर लगाया था) को अन्तिम नमस्कार कह देना। उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद आये। बुढ़ापे में ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।"
रामप्रसाद जी की सारी हसरतें दिल-ही-दिल में रह गयीं। आपने एक लम्बा-चौड़ा ऐलान किया है जिसे संक्षेप में हम दूसरी जगह दे रहे हैं। फाँसी से दो दिन पहले सी.आई.डी. के डिप्टी एस.पी. और सेशन जज मि. हैमिल्टन आपसे मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो। आपको पन्द्रह हजार रुपया नकद दिया जायेगा और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जायेगी। लेकिन आप कब इन सब बातों की परवाह करते थे। आप तो हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी-कभार जन्म लेने वालों में से थे। मुकदमे के दिनों आपसे जज ने पूछा था - 'आपके पास कौन सी डिग्री है?' तो आपने हँसकर जवाब दिया था - 'सम्राट बनाने वालों को डिग्री की कोई जरूरत नहीं होती, क्लाइव के पास भी तो कोई डिग्री नहीं थी।' आज वह वीर हमारे बीच नहीं है, आह!"[26]
अस्थि-कलश की स्थापना[संपादित करें]
बिस्मिल की अन्त्येष्टि के बाद बाबा राघव दास ने गोरखपुर के पास स्थित देवरिया जिले के बरहज नामक स्थान पर ताम्रपात्र में उनकी अस्थियों को संचित कर एक चबूतरा जैसा स्मृति-स्थल बनवा दिया। [27]
फाँसी के बाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में तेज़ी[संपादित करें]
१९२७ में बिस्मिल के साथ ३ अन्य क्रान्तिकारियों के बलिदान ने पूरे हिन्दुस्तान के हृदय को हिलाकर रख दिया। ९ अगस्त १९२५ के काकोरी काण्ड के फैसले से उत्पन्न परिस्थितियाँ ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। समूचे देश में स्थान-स्थान पर चिनगारियों के रूप में नई-नई समितियाँ गठित हो गयीं। बेतिया (बिहार) में फणीन्द्रनाथ का हिन्दुस्तानी सेवा दल, पंजाब में सरदार भगत सिंह कीनौजवान सभा तथा लाहौर (अब पाकिस्तान) में सुखदेव की गुप्त समिति के नाम से कई क्रान्तिकारी संस्थाएँ जन्म ले चुकी थीं। हिन्दुस्तान के कोने-कोने में क्रान्ति की आग दावानल की तरह फैल चुकी थी। कानपुरसे गणेशशंकर विद्यार्थी का प्रताप व गोरखपुर से दशरथ प्रसाद द्विवेदी का स्वदेश जैसे अखबार इस आग को हवा दे रहे थे।
काकोरी काण्ड के एक प्रमुख क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद, जिन्हें राम प्रसाद बिस्मिल उनके पारे (mercury) जैसे चंचल स्वभाव के कारण क्विक सिल्वर कहा करते थे, पूरे हिन्दुस्तान में भेस बदल कर घूमते रहे। उन्होंने भिन्न-भिन्न समितियों के प्रमुख संगठनकर्ताओं से सम्पर्क करके सारी क्रान्तिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया। ८ व ९ सितम्बर १९२८ में फिरोजशाह कोटला दिल्ली में एच॰ आर॰ ए॰, नौजवान सभा, हिन्दुस्तानी सेवा दल व गुप्त समिति का विलय करके एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ नाम से एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का गठन हुआ। इस पार्टी को बिस्मिल के बताये रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराना था किन्तु ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र ने वैसा भी नहीं होने दिया।
३० अक्टूबर १९२८ को साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट जे॰ पी॰ साण्डर्स के बर्बर लाठीचार्ज से बुरी तरह घायल हुए और १७ नवम्बर १९२८ को उनकी मृत्यु हो गयी। इस घटना से आहत एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ के चार युवकों ने १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर जाकर दिन दहाड़े साण्डर्स का वध कर दिया और फरार हो गये। साण्डर्स हत्याकाण्ड के प्रमुख अभियुक्त सरदार भगत सिंह को पुलिस पंजाब में तलाश रही थी जबकि वह यूरोपियन के भेस में कलकत्ता जाकर बंगालके क्रान्तिकारियों से बम बनाने की तकनीक और सामग्री जुटाने में लगे हुए थे। दिल्ली से २० मील दूर ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे के निकट स्थित नलगढ़ा गाँव में रहकर भगत सिंह ने दो बम तैयार किये और बटुकेश्वर दत्त के साथ जाकर ८ अप्रैल १९२९ को दिल्ली की सेण्ट्रल असेम्बली में उस समय विस्फोट कर दिया जब सरकार जन विरोधी कानून पारित करने जा रही थी। इस विस्फोट ने बहरी सरकार पर भले ही असर न किया हो परन्तु समूचे देश में अद्भुत जन-जागरण का काम अवश्य किया।
बम विस्फोट के बाद दोनों ने "इंकलाब! जिन्दाबाद!!" व "साम्राज्यवाद! मुर्दाबाद!!" के जोरदार नारे लगाये और एच॰ एस॰ आर॰ ए॰ के पैम्फलेट हवा में उछाल दिये। असेम्बली में मौजूद सुरक्षाकर्मियों - सार्जेण्ट टेरी व इन्स्पेक्टर जॉनसन ने उन्हें वहीं गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। यह सनसनीखेज खबर अगले ही दिन समूचे देश में फैल गयी। ४ मई १९२९ के अभ्युदय में इलाहाबाद से यह समाचार छपा - ऐसेम्बली का बम केस: काकोरी केस से इसका सम्बन्ध है। आई॰ पी॰ सी॰ की दफा ३०७ व एक्सप्लोसिव एक्ट की धारा ३ के अन्तर्गत इन दोनों को उम्र-कैद का दण्ड देकर अलग-अलग जेलों में रक्खा गया। जेल में राजनीतिक बन्दियों जैसी सुविधाओं की माँग करते हुए जब दोनों ने भूख हड़ताल शुरू की तो उन दोनों का सम्बन्ध साण्डर्स-वध से जोड़ते हुए एक और केस कायम किया गया जिसे लाहौर कांस्पिरेसी केस के नाम से जाना जाता है। इस केस में कुल २४ लोग नामजद हुए, इनमें से ५ फरार हो गये, १ को पहले ही सजा हो चुकी थी, शेष १८ पर केस चला। इनमें से एक - यतीन्द्रनाथ दासकी बोर्स्टल जेल लाहौर में लगातार भूख हड़ताल करने से मृत्यु हो गयी, शेष बचे १७ में से ३ को फाँसी, ७ को उम्र-कैद, एक को ७ वर्ष व एक को ५ वर्ष की सजा का हुक्म हुआ। तीन को ट्रिब्यूनल ने रिहा कर दिया। बाकी बचे तीन अभियुक्तों को अदालत ने साक्ष्य न मिलने के कारण छोड़ दिया।
फाँसी की सजा पाये तीनों अभियुक्तों - भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर दिया। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ़ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फ़रवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आजाद ने इनकी सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास-स्थान आनन्द भवन में भेंट की और उनसे यह आग्रह किया कि वे गान्धी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र - कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की। इस पर नेहरू ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा। आज़ाद अपने तकियाकलाम "स्साला" के साथ भुनभुनाते हुए नेहरू के ड्राइँग रूम से बाहर निकले और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेवराज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी॰ आई॰ डी॰ का एस॰ एस॰ पी॰ नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह २७ फ़रवरी १९३१ की घटना है। २३ मार्च १९३१ को निर्धारित समय से १३ घण्टे पूर्व भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर की सेण्ट्रल जेल में शाम को ७ बजे फाँसी दे दी गयी। यह जेल मैनुअल के नियमों का खुला उल्लंघन था, पर कौन सुनने वाला था? इन तीनों की फाँसी का समाचार मिलते ही पूरे देश में मारकाट मच गयी। कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़क उठा जिसे शान्त करवाने की कोशिश में क्रान्तिकारियों के शुभचिन्तक गणेशशंकर विद्यार्थी भी शहीद हो गये। इस प्रकार दिसम्बर १९२७ से मार्च १९३१ तक एक-एक कर देश के ११ नरसिंह आजादी की भेंट चढ़ गये।
उत्तर भारत की क्रान्तिकारी गतिविधियों के अलावा बंगाल की घटनाओं का लेखा-जोखा भी इतिहास में दर्ज़ है। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में बंगाल के भी कई क्रान्तिकारी शामिल थे जिनमें से एकराजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को निर्धारित तिथि से २ दिन पूर्व १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी दिये जाने का कारण केवल यह था कि बंगाल के क्रान्तिकारियों ने फाँसी की निश्चित तिथि से एक दिन पूर्व अर्थात् १८ दिसम्बर १९२७ को ही उन्हें गोण्डा जेल से छुड़ा लेने की योजना बना ली थी। इसकी सूचना सी॰ आई॰ डी॰ ने ब्रिटिश सरकार को दे दी थी। १३ जनवरी १९२८ को मणीन्द्रनाथ बनर्जी ने चन्द्रशेखर आजाद के उकसाने पर अपने सगे चाचा को, जिन्हें काकोरी काण्ड में अहम भूमिका निभाने के पुरस्कारस्वरूप डी॰ एस॰ पी॰ के पद पर प्रोन्नत किया गया था, उन्हीं की सर्विस रिवॉल्वर से मौत के घाट उतार दिया। दिसम्बर १९२९ में मछुआ बाजार गली स्थित निरंजन सेनगुप्ता के घर छापा पड़ा, जिसमें २७ क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर केस कायम हुआ और ५ को कालेपानी की सजा दी गयी। १८ अप्रैल १९३० को मास्टर सूर्य सेन के नेतृत्व में चटगाँव शस्त्रागार लूटने का प्रयास हुआ जिसमें सूर्य सेन व तारकेश्वर दस्तीगार को फाँसी एवं १२ अन्य को उम्र-कैद की सजा हुई। ८ अगस्त १९३० को के॰ के॰ शुक्ला ने झाँसी के कमिश्नर स्मिथ पर गोली चला दी, उसे मृत्यु-दण्ड मिला। २७ अक्टूबर १९३० को युगान्तर पार्टी के सदस्यों ने सुरेशचन्द्र दास के नेतृत्व में कलकत्ता में तल्ला तहसील की ट्रेजरी लूटने का प्रयास किया, सभी पकड़े गये और कालेपानी की सजा हुई। अप्रैल १९३१ में मेमनसिंह डकैती डाली गई जिसमें गोपाल आचार्य, सतीशचन्द्र होमी व हेमेन्द्र चक्रवर्ती को उम्र-कैद की सजा मिली।[28]
इन सब घटनाओं का कांग्रेस पार्टी पर भी व्यापक असर पड़ा। सुभाषचन्द्र बोस जैसे नवयुवक गान्धी जी की नीतियों का मुखर विरोध करने लगे थे। जो गान्धी सन् १९२२ से १९२७ तक राजनीति के पटल से एकदम अदृश्य हो चुके थे अब वही गान्धी जी राम प्रसाद बिस्मिल व उनके साथियों के बलिदान के बाद फिर से तेवर बदलते हुए कांग्रेस में अपनी मनमर्जी का अध्यक्ष चुनवाने और मनचाही नीतियाँ लागू करवाने लगे थे। उनसे तंग आकर सुभाषचन्द्र बोस ने लगातार दो बार - सन् १९३८ के त्रिपुरी व सन् १९३९ के हरिपुरा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष का पद जीत कर गान्धी जी को आइना दिखाने का दुस्साहस किया था। किन्तु गान्धी जी ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी में लॉबीइंग करके सुभाष को तंग करना शुरू कर दिया जिससे दुखी होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली। उसके बाद जब उन्हें लगा कि गान्धी जी सरकार से मिलकर उनके काम में रोड़ा अटकाते ही रहेंगे तो उन्होंने एक दिन हिन्दुस्तान छोड़ दिया और जापान पहुँचकर आई॰ एन॰ ए॰ अर्थात् आजाद हिन्द फौज की कमान सम्हाल ली।
दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए ८ अगस्त १९४२ की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा (पुणे) स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। ९ अगस्त १९४२ के दिन इस आन्दोलन को लालबहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने प्रचण्ड रूप दे दिया। १९ अगस्त,१९४२ को शास्त्री जी गिरफ्तार हो गये। ९ अगस्त १९२५ को ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से 'बिस्मिल' के नेतृत्व में हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने काकोरी काण्ड किया था जिसकी यादगार ताजा रखने के लिये पूरे देश में प्रतिवर्ष ९ अगस्त को "काकोरी काण्ड स्मृति - दिवस" मनाने की परम्परा भगत सिंह ने प्रारम्भ कर दी थी और इस दिन बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे। गान्धी जी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ९ अगस्त १९४२ का दिन चुना था।
९ अगस्त १९४२ को दिन निकलने से पहले ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य गिरफ्तार हो चुके थे और काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। गान्धी जी के साथ भारत कोकिला सरोजिनी नायडू को यरवदा (पुणे) के आगा खान पैलेस में सारी सुविधाओं के साथ, डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को पटना जेल में व अन्य सभी सदस्यों कोअहमदनगर के किले में नजरबन्द रखने का नाटक ब्रिटिश साम्राज्य ने किया था ताकि जनान्दोलन को दबाने में बल-प्रयोग से इनमें से किसी को कोई हानि न हो। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनान्दोलन में ९४० लोग मारे गये १६३० घायल हुए,१८००० डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा ६०२२९ गिरफ्तार हुए। आन्दोलन को कुचलने के ये आँकड़े दिल्ली की सेण्ट्रल असेम्बली में ऑनरेबुल होम मेम्बर ने पेश किये थे।
सन् १९४३ से १९४५ तक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व किया। उनके सैनिक "सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है; देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?" जैसा सम्बोधि - गीतऔर "कदम-कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा; ये जिन्दगी है कौम की, तू कौम पे लुटाये जा!" सरीखे कौमी-तराने फौजी बैण्ड की धुन के साथ गाते हुए सिंगापुर के रास्ते कोहिमा(नागालैण्ड) तक आ पहुँचे। तभीजापान पर अमरीकी परमाणु हमले के कारण नेताजी को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। वे विमान से रूस जाने की तैयारी में जैसे ही फारमोसा के ताईहोकू एयरबेस से उड़े कि १८ अगस्त १९४५ को उनके ९७-२ मॉडल हैवी बॉम्बर प्लेन में आग लग गयी। उन्हें घायल अवस्था में ताईहोकू आर्मी हॉस्पिटल ले जाया गया जहाँ रात ९ बजे उनकी मृत्यु हो गयी।[29]
नेताजी की मौत और आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर मुकदमे की खबर ने पूरे हिन्दुस्तान में तूफान मचा दिया। इसके फलस्वरूप दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बम्बई बन्दरगाह पर उतरे नौसैनिकों ने बगावत कर दी। १८ फ़रवरी १९४६ को बम्बई से शुरू हुआ यह नौसैनिक विद्रोह देश के सभी बन्दरगाहों व महानगरों में फैल गया। २१ फ़रवरी १९४६ को ब्रिटिश आर्मी ने बम्बई पहुँच कर हमारे नौसैनिकों पर गोलियाँ चलायीं जिसके परिणामस्वरूप केवल २२ फ़रवरी १९४६ को ही २२८ लोग मारे गये तथा १०४६ घायल हुए। यह उस समय का सबसे भयंकर दमन था जो क्रूर ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुस्तान में किया।[30]
बिस्मिल का क्रान्ति-दर्शन[संपादित करें]
भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु राम प्रसाद बिस्मिल एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक - से - बढ़कर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे किन्तुअहिंसा की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र जिन्होंने किया उन्हीं का चित्र भारतीय पत्र मुद्रा (Paper Currency) पर दिया जाता है। जबकिअमरीका में एक व दो अमरीकी डॉलर पर आज भी जॉर्ज वाशिंगटन का ही चित्र छपता है जिसने अमरीका को अँग्रेजों से मुक्त कराने में प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने युद्धलड़ा था।
बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् १९१६ में छपी थी जिसका नाम था-अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास। बिस्मिल के जन्म शताब्दी वर्ष: १९९६-१९९७ में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया।"[31] उस कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो॰ राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) भी उपस्थित थे।[32] इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं। परन्तु आज तक किसी भी सरकार ने बिस्मिल के क्रान्ति-दर्शन को समझने व उस पर शोध करवाने का प्रयास ही नहीं किया। जबकि गान्धी जी द्वारा १९०९ में विलायत से हिन्दुस्तान लौटते समय पानी के जहाज पर लिखी गयी पुस्तक हिन्द स्वराज पर अनेकोँ संगोष्ठियाँ हुईं। बिस्मिल सरीखे असंख्य शहीदों के सपनों का भारत बनाने की आवश्यकता है।
साहित्य रचना[संपादित करें]
बिस्मिल एक लेखक थे और उन्होंने कई कविताएँ, ग़ज़लें एवं पुस्तकें लिखी थीं। कुछ प्रमुख कविताओं व ग़ज़लों के बारे में नीचे दिया जा रहा है।
कविताएँ एवं ग़ज़लें[संपादित करें]
- सरफरोशी की तमन्ना: बिस्मिल की यह गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत में जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढ़ाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी[33]।
- जज्वये-शहीद (बिस्मिल का मशहूर उर्दू मुखम्मस): बिस्मिल का यह यह उर्दू मुखम्मस भी उन दिनों सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ करता था यह उनकी अद्भुत रचना है यह इतनी अधिक भावपूर्ण है कि लाहौर कान्स्पिरेसी केस के समय जब प्रेमदत्त नाम के एक कैदी ने अदालत में गाकर सुनायी थी तो श्रोता रो पड़े थे[34]। जज अपना फैसला तत्काल बदलने को मजबूर हो गया और उसने प्रेमदत्त की सजा उसी समय कम कर दी थी। अदालत में घटित इस घटना का उदाहरण भी इतिहास में दर्ज़ हो गया।
- जिन्दगी का राज (बिस्मिल की एक अन्य उर्दू गजल): बिस्मिल की इस गजल में जीवन का वास्तविक दर्शन निहित है शायद इसीलिये उन्होंने इसका नाम राजे मुज्मिर या जिन्दगी का राज मुजमिर[35] (कहीं-कहीं यह भी मिलता है) दिया था। वास्तव में अपने लिये जीने वाले मरने के बाद विस्मृत हो जाते हैं पर दूसरों के लिये जीने वाले हमेशा के लिये अमर हो जाते हैं।
- बिस्मिल की तड़प (बिस्मिल की अन्तिम रचना[36]): गोरखपुर जेल से चोरी छुपे बाहर भिजवायी गयी इस गजल में प्रतीकों के माध्यम से अपने साथियों को यह सन्देशा भेजा था कि अगर कुछ कर सकते हो तो जल्द कर लो वरना पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ न आयेगा। बिस्मिल की आत्मकथा के अनुसार इस बात का उन्हें मलाल ही रह गया कि उनकी पार्टी का कोई एक भी नवयुवक उनके पास उनका रिवाल्वर तक न पहुँचा सका। उनके अपने वतन शाहजहाँपुर के लोग भी इसमें भागदौड़ के अलावा कुछ न कर पाये। बाद में इतिहासकारों ने न जाने क्या-क्या मन गढन्त लिख दिया।
वर्ष १९८५ में विज्ञान भवन, नई दिल्ली में आयोजित भारत और विश्व साहित्य पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक भारतीय प्रतिनिधि[37] ने अपने लेख के साथ पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की कुछ लोकप्रिय कविताओं का द्विभाषिक काव्य रूपान्तर (हिन्दी-अंग्रेजी में) प्रस्तुत किया था जिसे उनकी पुस्तक[38] से साभार उद्धृत करके अंग्रेजी विकीस्रोत पर दे दिया गया[39] है ताकि हिन्दी के पाठक भी उन रचनाओं का आनन्द ले सकें।
पुस्तकें[संपादित करें]
रामप्रसाद 'बिस्मिल' की जिन पुस्तकों का विवरण मिलता है, उनके नाम इस प्रकार हैं:[40]
- मैनपुरी षड्यन्त्र,
- स्वदेशी रंग,
- चीनी-षड्यन्त्र (चीन की राजक्रान्ति),
- तपोनिष्ठ अरविन्द घोष की कारावास कहानी[41]
- अशफ़ाक की याद में,
- सोनाखान के अमर शहीद-'वीरनारायण सिंह',
- जनरल जार्ज वाशिंगटन
- अमरीका कैसे स्वाधीन हुआ?
आत्मकथा[संपादित करें]
बिस्मिल की आत्मकथा को हिन्दी में काकोरी षड्यन्त्र नामक एक पुस्तक के अन्दर निज जीवन की एक छटा के नाम से भजनलाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस सिन्ध (अब पाकिस्तान) से और काकोरी के शहीद शीर्षक से गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप प्रेस, कानपुर से छापा था। सुपरिंटेंडेंट गवर्नमेंट प्रेस इलाहाबाद से किन्हीं भीष्म के छद्मनाम नाम से अनूदित होकर यही पुस्तक सन् १९२९ में अंग्रेजी में भी छपी थी। ब्रिटिश राज के दौरान संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के खुफिया विभाग ने यह पुस्तक प्रत्येक जिले के पुलिस अधिकारियों को भिजवायी थी।[42]
हिन्दी-अंग्रेजी के अलावा:
- काकोरी षड्यन्त्र शीर्षक से बांग्ला में[43]
- अमर क्रान्तिकारी: रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से संस्कृत में[44]
- आतमकथा रामप्रसाद बिस्मिल के शीर्षक से पंजाबी में[45]
- रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से गुजराती में[46]
- बिस्मिल आत्मकथा शीर्षक से तेलुगू में[47]
- रामपुर्सादो बिसुमूरा जिदेन के नाम से जापानी भाषा[48]
कुल आठ भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है।[49] क्रान्तिकारियों के जीवन के ऊपर सर्वाधिक ग्रन्थ लिखने वाले हिन्दी साहित्यकार श्रीकृष्ण सरल ने अपने ग्रन्थ क्रान्तिकारी कोश में बिस्मिल की आत्मकथा को नवयुवकों के लिये एक आदर्श मार्गनिर्देशिका बतलाया है। इसमें उनके एकादश वर्षीय क्रान्तिकारी जीवन का निचोड़ दिया गया है। इसे आद्योपान्त पढ़ने के बाद कैसा भी नवयुवक हो, व्यवस्था-परिवर्तन अथवा क्रान्ति के लिये हिंसा का मार्ग अपना ही नहीं सकता।[15]
बिस्मिल के साहित्य का अनुसन्धान व प्रकाशन[संपादित करें]
ग्यारह वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं। जिनमें से ग्यारह पुस्तकें ही उनके जीवन काल में प्रकाशित हो सकीं। ब्रिटिश राज में उन सभी पुस्तकों को ज़ब्त कर लिया गया। स्वतन्त्र भारत में काफी खोजबीन के पश्चात् उनकी लिखी हुई जो भी प्रामाणिक पुस्तकें इस समय पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं, उनका विवरण यहाँ दिया जा रहा है:
- सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग एक): क्रान्तिकारी बिस्मिल के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का २५ अध्यायों में सन्दर्भ सहित समग्र मूल्यांकन।[50]
- सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग दो): अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की २०० से अधिक जब्तशुदा आग्नेय कवितायें सन्दर्भ सूत्र व छन्द संकेत सहित।[51]
- सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग तीन): अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की मूल आत्मकथा-निज जीवन की एक छटा, १९१६ में जब्त अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास, बिस्मिल द्वारा बाँग्ला से हिन्दी में अनूदित यौगिक साधन (मूल रचनाकार: अरविन्द घोष), तथा बिस्मिल द्वारा मूल अँग्रेजी से हिन्दी में लिखित संक्षिप्त जीवनी कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी।[50]
- सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग चार): क्रान्तिकारी जीवन (बिस्मिल के स्वयं के लेख तथा उनके व्यक्तित्व पर अन्य क्रान्तिकारियों के लेख)।[50]
- क्रान्तिकारी बिस्मिल और उनकी शायरी संकलन/अनुवाद: 'क्रान्त'(भूमिका: डॉ॰ राम शरण गौड़ सचिव, हिन्दी अकादमी दिल्ली) बिस्मिल की उर्दू कवितायें (देवनागरी लिपि में) उनके हिन्दी काव्यानुवाद सहित।[52]
- बोल्शेविकों की करतूत[53]: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' का क्रान्तिकारी उपन्यास।
- मन की लहर[53]: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' की कविताओं का संकलन।
- क्रान्ति गीतांजलि[54]: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' की कविताओं का संकलन।
बिस्मिल पर अन्य व्यक्तियों के विचार[संपादित करें]
भगतसिंह[संपादित करें]
जनवरी १९२८ के किरती में भगत सिंह ने काकोरी के शहीदों के बारे में एक लेख लिखा था। काकोरी के शहीदों की फाँसी के हालात शीर्षक लेख में भगतसिंह बिस्मिल के बारे में लिखते हैं:
"श्री रामप्रसाद 'बिस्मिल' बड़े होनहार नौजवान थे। गज़ब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुन्दर थे। योग्य बहुत थे। जानने वाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह या किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष बनते। आपको पूरे षड्यन्त्र का नेता माना गया। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे लेकिन फिर भी पण्डित जगतनारायण जैसे सरकारी वकील की सुध-बुध भुला देते थे। चीफ कोर्ट में अपनी अपील खुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में जरूर ही किसी बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है।"[55]
रज्जू भैया[संपादित करें]
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक रज्जू भैया ने एक पुस्तक[56] में बिस्मिल के बारे में लिखा है:
"मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री राम प्रसाद 'बिस्मिल' प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि 'बिस्मिल' जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बड़ा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बड़ा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: 'बिस्मिल' जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।" - प्रो॰ राजेन्द्र सिंहसरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
रामविलास शर्मा[संपादित करें]
हिन्दी के प्रखर विचारक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम: बदलते परिप्रेक्ष्य में बिस्मिल के बारे में बड़ी बेवाक टिप्पणी की है:
"ऐसा कम होता है कि एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी की छवि का वर्णन करे और दोनों ही शहीद हो जायें। रामप्रसाद बिस्मिल १९ दिसम्बर १९२७ को शहीद हुए, उससे पहले मई १९२७ में भगतसिंह ने किरती में 'काकोरी के वीरों से परिचय' लेख लिखा। उन्होंने बिस्मिल के बारे में लिखा - 'ऐसे नौजवान कहाँ से मिल सकते हैं? आप युद्ध विद्या में बड़े कुशल हैं और आज उन्हें फाँसी का दण्ड मिलने का कारण भी बहुत हद तक यही है। इस वीर को फाँसी का दण्ड मिला और आप हँस दिये। ऐसा निर्भीक वीर, ऐसा सुन्दर जवान, ऐसा योग्य व उच्चकोटि का लेखक और निर्भय योद्धा मिलना कठिन है।' सन् १९२२ से १९२७ तक रामप्रसाद बिस्मिल ने एक लम्बी वैचारिक यात्रा पूरी की। उनके आगे की कड़ी थे भगतसिंह।"[57]
raushan kumar
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