Sunday 27 December 2015

सपने में भी महाराणा प्रताप से कांपता था अकबर, हो जाता था पसीना-पसीना


                        सपने में भी महाराणा प्रताप से कांपता था अकबर, हो जाता था पसीना-पसीना


हिंदुस्तान पुराने जमाने से ही सुसंस्कृत और संपन्न देश रहा है। मध्य युग की शुरुआत में मुस्लिम शासकों का भारत आगमन हो गया था। रॉयल ऑफ इंडिया सीरीज के तहत बताने जा रहा है मशहूर राजाओं और मुगल बादशाहों की जानी-अनजानी कहानियों के बारे में। इसी कड़ी में आज हम आपको बता रहे हैं मुगल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप की सेना के बीच 1576 में हुए हल्दीघाटी युद्ध की पूरी कहानी।

जयपुर। वीर योद्धा महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर के बीच हल्दीघाटी में हुए युद्ध के बाद अकबर मानसिक से रूप से बहुत विचलित हो गया था। अपने हरम में जब वह सोता था तब रात में नींद में कांपने लगता था। अकबर की हालात देख उसकी पत्नियां भी घबरा जाती, इस दौरान वह जोर-जोर से से महाराणा प्रताप का नाम लेता था। हल्दीघाटी की मिट्टी का रंग हल्दी की तरह पीला है। यहीं पर महाराणा प्रताप की सेना ने अकबर की फौज को नाको चने चबाने मजबूर कर दिया था। 18 जून 1576 में मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के बीच भीषण युद्ध हुआ था। इस लड़ाई में न अकबर जीता और न महाराणा प्रताप हारे। कई दौर में हुए इस युद्ध के बारे में कहा जाता है कि अकबर महाराणा प्रताप के युद्ध कौशल से इतना घबरा गया था कि उसे सपने में महाराणा प्रताप दिखते थे। अकबर सोते समय कांपने के साथ महाराणा प्रताप का नाम लेकर कांपने लगता था।maharana-pratap-akbar
हल्दीघाटी का कण-कण कहता है बलिदान की कहानी
हल्दीघाटी का कण-कण प्रताप की सेना के शौर्य, पराक्रम और बलिदानों की कहानी कहता है। रणभूमि की कसौटी पर राजपूतों के कर्तव्य और वीरता के जज्बे की परख हुई थी। मेवाड़ के राजा राणा उदय सिंह और महारानी जयवंता बाई के पुत्र महाराणा प्रताप सिसोदिया वंश के अकेले ऐसे राजपूत राजा थे जिन्होंने मुगल सम्राट अकबर की आधीनता अस्वीकार करने का साहस दिखाया था और जब तक जीवित रहे अकबर को चैन से नहीं रहने दिया।हल्दीघाटी


विवाह में सात फेरे ही क्यों लेते हैं?


              विवाह में सात फेरे ही क्यों लेते हैं?


आखिर हिन्दू विवाह के दौरान अग्नि के समक्ष 7 फेरे ही क्यों लेते हैं? दूसरा यह कि क्या फेरे लेना जरूरी है ?
पाणिग्रहण का अर्थ : पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से ‘विवाह’ के नाम से जाना जाता है। वर द्वारा नियम और वचन स्वीकारोक्ति के बाद कन्या अपना हाथ वर के हाथ में सौंपे और वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंप दे। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे का पाणिग्रहण करते हैं। कालांतर में इस रस्म को ‘कन्यादान’ कहा जाने लगा, जो कि अनुचित है।
नीचे लिखे मंत्र के साथ कन्या अपना हाथ वर की ओर बढ़ाए, वर उसे अंगूठा सहित (समग्र रूप से) पकड़ ले। भावना करें कि दिव्य वातावरण में परस्पर मित्रता के भाव सहित एक-दूसरे के उत्तरदायित्व को स्वीकार कर रहे हैं।
ॐ यदैषि मनसा दूरं, दिशोऽ नुपवमानो वा।
हिरण्यपणोर् वै कर्ण, स त्वा मन्मनसां करोतु असौ।। -पार.गृ.सू. 1.4.15
विवाह का अर्थ : विवाह को शादी या मैरिज कहना गलत है। विवाह का कोई समानार्थी शब्द नहीं है। विवाह= वि+वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना।
विवाह एक संस्कार : अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, लेकिन हिन्दू धर्म में विवाह बहुत ही भली-भांति सोच- समझकर किए जाने वाला संस्कार है। इस संस्कार में वर और वधू सहित सभी पक्षों की सहमति लिए जाने की प्रथा है। हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध होता है और इस संबंध को अत्यंत पवित्र माना गया है!
सात फेरे या सप्तपदी : हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। विवाह में जब तक 7 फेरे नहीं हो जाते, तब तक विवाह संस्कार पूर्ण नहीं माना जाता। न एक फेरा कम, न एक ज्यादा। इसी प्रक्रिया में दोनों 7 फेरे लेते हैं जिसे ‘सप्तपदी’ भी कहा जाता है। ये सातों फेरे या पद 7 वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है जिसे पति-पत्नी जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं। ये 7 फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं। अग्नि के 7 फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं
ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय संस्कृति में 7 की संख्या मानव जीवन के लिए बहुत विशिष्ट मानी गई है। संगीत के 7 सुर, इंद्रधनुष के 7 रंग, 7 ग्रह, 7 तल, 7 समुद्र, 7 ऋषि, सप्त लोक, 7 चक्र, सूर्य के 7 घोड़े, सप्त रश्मि, सप्त धातु, सप्त पुरी, 7 तारे, सप्त द्वीप, 7 दिन, मंदिर या मूर्ति की 7 परिक्रमा, आदि का उल्लेख किया जाता रहा है

उसी तरह जीवन की 7 क्रियाएं अर्थात- शौच, दंत धावन, स्नान, ध्यान, भोजन, वार्ता और शयन। 7 तरह के अभिवादन अर्थात- माता, पिता, गुरु, ईश्वर, सूर्य, अग्नि और अतिथि। सुबह सवेरे 7 पदार्थों के दर्शन- गोरोचन, चंदन, स्वर्ण, शंख, मृदंग, दर्पण और मणि। 7 आंतरिक अशुद्धियां- ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा और कुविचार। उक्त अशुद्धियों को हटाने से मिलते हैं ये 7 विशिष्ट लाभ- जीवन में सुख, शांति, भय का नाश, विष से रक्षा, ज्ञान, बल और विवेक की वृद्धि। स्नान के 7 प्रकार- मंत्र स्नान, मौन स्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, मसग स्नान और मानसिक स्नान। शरीर में 7 धातुएं हैं- रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मजा और शुक्र। 7 गुण- विश्वास, आशा, दान, निग्रह, धैर्य, न्याय, त्याग। 7 पाप- अभिमान, लोभ, क्रोध, वासना, ईर्ष्या, आलस्य, अति भोजन और 7 उपहार- आत्मा के विवेक, प्रज्ञा, भक्ति, ज्ञान, शक्ति, ईश्वर का भय
यही सभी ध्यान रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लेने का प्रचलन भी है जिसे ‘सप्तपदी’ कहा गया है। वैदिक और पौराणिक मान्यता में भी 7 अंक को पूर्ण माना गया है। कहते हैं कि पहले 4 फेरों का प्रचलन था। मान्यता अनुसार ये जीवन के 4 पड़ाव- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक था

सप्तपदी का मुख्‍यत: किससे जुड़ी है

हमारे शरीर में ऊर्जा के 7 केंद्र हैं जिन्हें ‘चक्र’ कहा जाता है। ये 7 चक्र हैं- मूलाधार (शरीर के प्रारंभिक बिंदु पर), स्वाधिष्ठान (गुदास्थान से कुछ ऊपर), मणिपुर (नाभि केंद्र), अनाहत (हृदय), विशुद्ध (कंठ), आज्ञा (ललाट, दोनों नेत्रों के मध्य में) और सहस्रार (शीर्ष भाग में जहां शिखा केंद्र) है।
उक्त 7 चक्रों से जुड़े हैं हमारे 7 शरीर। ये 7 शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, मानस शरीर, आत्मिक शरीर, दिव्य शरीर और ब्रह्म शरीर
विवाह की सप्तपदी में उन शक्ति केंद्रों और अस्तित्व की परतों या शरीर के गहनतम रूपों तक तादात्म्य बिठाने करने का विधान रचा जाता है। विवाह करने वाले दोनों ही वर और वधू को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से एक-दूसरे के प्रति समर्पण और विश्वास का भाव निर्मित किया जाता है।
मनोवैज्ञानिक तौर से दोनों को ईश्वर की शपथ के साथ जीवनपर्यंत तक दोनों से साथ निभाने का वचन लिया जाता है इसलिए विवाह की सप्तपदी में 7 वचनों का भी महत्व है
सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम के लिए, तीसरा धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु, चौथा आत्मिक सुख के लिए, पांचवां पशुधन संपदा हेतु, छठा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम 7वें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष जीवनपर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है
‘मैत्री सप्तपदीन मुच्यते’ अर्थात एकसाथ सिर्फ 7 कदम चलने मात्र से ही दो अनजान व्यक्तियों में भी मैत्री भाव उत्पन्न हो जाता है अतः जीवनभर का संग निभाने के लिए प्रारंभिक 7 पदों की गरिमा एवं प्रधानता को स्वीकार किया गया है। 7वें पग में वर, कन्या से कहता है कि ‘हम दोनों 7 पद चलने के पश्चात परस्पर सखा बन गए हैं।’
मन, वचन और कर्म के प्रत्येक तल पर पति-पत्नी के रूप में हमारा हर कदम एकसाथ उठे इसलिए आज अग्निदेव के समक्ष हम साथ-साथ 7 कदम रखते हैं। हम अपने गृहस्थ धर्म का जीवनपर्यंत पालन करते हुए एक-दूसरे के प्रति सदैव एकनिष्ठ रहें और पति-पत्नी के रूप में जीवनपर्यंत हमारा यह बंधन अटूट बना रहे तथा हमारा प्यार 7 समुद्रों की भांति विशाल और गहरा हो।




                                 RAUSHAN KUMAR

सिकंदर हार गया था राजा पोरस से…!


                                        सिकंदर हार गया था राजा पोरस से…!


महान सम्राट पोरस को हराकर बंधक बनाकर जब सिकंदर के सामने पेश किया गया तो सिकंदर ने पूछा- ‘तुम्हारे साथ क्या किया जाए तो पोरस ने कहा- ‘मेरे साथ वो व्यवहार करो, जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।’ सचमुच यह एक अच्छा वाक्य है लेकिन क्या इसमें सचाई है? यह यूनानी इतिहासकारों ने सिकंदर को महान बनाने के लिए लिखा
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पुरु का नाम यूनानी इतिहासकारों ने ‘पोरस’ लिखा है। इतिहास को निष्पक्ष लिखने वाले प्लूटार्क ने लिखा- ‘सिकंदर सम्राट पुरु की 20,000 की सेना के सामने तो ठहर नहीं पाया। आगे विश्व की महानतम राजधानी मगध के महान सम्राट धनानंद की सेना 3,50,000 की सेना उसका स्वागत करने के लिए तैयार थी जिसमें 80,000 घुड़सवार, 80,000 युद्धक रथ एवं 70,000 विध्वंसक हाथी सेना थी। उसके क्रूर सैनिक दुश्मन के सैनिकों को मुर्गी-तीतर जैसा काट देते हैं।
क्या सिकंदर (अलक्षेन्द्र) एक महान विजेता था? ग्रीस के प्रभाव से लिखी गई पश्चिम के इतिहास की किताबों में यही बताया जाता है और पश्चिम जो कहता है दुनिया उसे आंख मूंदकर मान लेती है। मगर ईरानी और चीनी इतिहास के नजरिए से देखा जाए तो यह छवि कुछ अलग ही दिखती है।’
सिकंदर के हमले की कहानी बुनने में पश्चिमी देशों को ग्रीक भाषा और संस्कृति से मदद मिली, जो ये कहती है कि सिकंदर का अभियान उन पश्चिमी अभियानों में पहला था, जो पूरब के बर्बर समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किए गए।
अजीब लगता है ‍जबकि भारत में सिकंदर को महान कहा जाता है और उस पर गीत लिखे जाते हैं। उस पर तो फिल्में भी बनी हैं जिसमें उसे महान बताया गया और एक कहावत भी निर्मित हो गई है- ‘जो जीता वही सिकंदर’। …यदि सचमुच ही भारतीयों ने पश्चिम नहीं, भारतीय इतिहासकारों को पढ़ा होता तो वे कहते… ‘जो जीता वही पोरस’। लेकिन अंग्रेजों की 200 वर्षों की गुलामी ने अंग्रेज भक्त जो बना दिया है।
सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने सौतेले व चचेरे भाइयों का कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिन्हासन पर बैठा था। अपनी महत्वाकांक्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला। यूनान के मकदूनिया का यह राजा सिकंदर कभी भी महान नहीं रहा। यूनानी योद्धा सिकंदर एक क्रूर, अत्याचारी और शराब पीने वाला व्यक्ति था।
 इतिहासकारों के अनुसार सिकंदर ने कभी भी उदारता नहीं दिखाई। उसने अपने अनेक सहयोगियों को उनकी छोटी-सी भूल से रुष्ट होकर तड़पा-तड़पाकर मारा था। इसमें उसका एक योद्धा बसूस, अपनी धाय का भाई क्लीटोस और पर्मीनियन आदि का नाम उल्लेखनीय है। क्या एक क्रूर और हत्यारा व्यक्ति महान कहलाने लायक है? गांधार के राजा आम्भी ने सिकंदर का स्वागत किया। आम्भी ने भारत के साथ गद्दारी की।
प्रसिद्ध इतिहासकार एर्रियन लिखते हैं, जब बैक्ट्रिया के राजा बसूस को बंदी बनाकर लाया गया, तब सिकंदर ने उनको कोड़े लगवाए और उनकी नाक-कान कटवा डाले। इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। उसने अंत में उनकी हत्या करवा दी। उसने अपने गुरु अरस्तू के भतीजे कलास्थनीज को मारने में संकोच नहीं किया।
एक बार किसी छोटी-सी बात पर उसने अपने सबसे करीबी मित्र क्लीटोस को मार डाला था। अपने पिता के मित्र पर्मीनियन जिनकी गोद में सिकंदर खेला था उसने उनको भी मरवा दिया। सिकंदर की सेना जहां भी जाती, पूरे के पूरे नगर जला दिए जाते, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता और बच्चों को भालों की नोक पर टांगकर शहर में घुमाया जाता था।
ऐसा क्रूर सिकंदर अपने क्या, महान सम्राट पोरस के प्रति उदार हो सकता था? यदि पोरस हार जाते तो क्या वे जिंदा बचते और क्या उनका साम्राज्य यूनानियों का साम्राज्य नहीं हो जाता?
इतिहास में यह लिखा गया कि सिकंदर ने पोरस को हरा दिया था। यदि ऐसा होता तो सिकंदर मगध तक पहुंच जाता और इतिहास कुछ और होता। लेकिन इतिहास लिखने वाले यूनानियों ने सिकंदर की हार को पोरस की हार में बदल दिया।
हारे हुए सिकंदर का सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए यूनानी लेखकों ने यह सारा झूठा जाल रचा। स्ट्रेबो, श्वानबेक आदि विदेशी विद्वानों ने तो कई स्थानों पर इस बात का उल्लेख किया है कि मेगस्थनीज आदि प्राचीन यूनानी लेखकों के विवरण झूठे हैं। ऐसे विवरणों के कारण ही सिकंदर को महान समझा जाने लगा और पोरस को एक हारा हुआ योद्धा, जबकि सचाई इसके ठीक उलट थी। सिकंदर को हराने के बाद पोरस ने उसे छोड़ दिया था और बाद में चाणक्य के साथ मिलकर उसने मगध पर आक्रमण किया था।
यूनानी इतिहासकारों के झूठ को पकड़ने के लिए ईरानी और चीनी विवरण और भारतीय इतिहास के विवरणों को भी पढ़ा जाना चाहिए। यूनानी इतिहासकारों ने सिकंदर के बारे में झूठ लिखा था, ऐसा करके उन्होंने अपने महान योद्धा और देश के सम्मान को बचाया।
जवाहरलाल नेहरू अपनी पुस्तक ‘ग्लिम्पसेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखते हैं- ‘सिकंदर अभिमानी, उद्दंड, अत्यंत क्रूर और हिंसक था। वह स्वयं को ईश्वर के समान समझता था। क्रोध में आकर उसने अपने निकटतम मित्रों और सगे-संबंधियों की हत्या की और महान नगरों को उसके निवासियों सहित पूर्णतः ध्वस्त कर दिया
सेंट एंड्र्यूज विश्वविद्यालय, स्कॉटलैंड के प्रोफेसर अली अंसारी के अनुसार प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी पर्सेपोलिस के खंडहरों को देखने जाने वाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं कि इसे डेरियस महान ने बनाया था, इसे उसके बेटे जेरक्सस ने और बढ़ाया, लेकिन इसे ‘उस इंसान’ ने तबाह कर दिया जिसका नाम था- सिकंदर। सोचिए तबाह करने वाला कैसे महान हुआ? उस इंसान सिकंदर को, पश्चिमी संस्कृति में ‘सिकंदर महान’ कहा जाता है।
ऐसा क्यों किया सिकंदर ने? शराब पीने के बाद एक ग्रीक नर्तकी को यह दिखाया गया कि ईरानी शासक जेरक्सस से बदला लेने के लिए उसने एक्रोपोलिस को जला दिया।
ईरानी सिकंदर की यह कहकर भी आलोचना करते हैं कि उसने अपने साम्राज्य में सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचाने को बढ़ावा दिया। उसके समय में ईरानियों के प्राचीन धर्म, पारसी धर्म के मुख्य उपासना स्थलों पर हमले किए गए।
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सिकंदर ने ईरान के राजा दारा को पराजित कर दिया और विश्व विजेता कहलाने लगा। विजय के उपरांत उसने बहुत भव्य जुलूस निकाला। महज 32 साल की उम्र में मौत के मुंह में चले जाने वाले सिकंदर को ईरानी कृति ‘शाहनामा’ ने महज एक विदेशी राजकुमार माना है
भारत की सीमा में पहुंचते ही पहाड़ी सीमाओं पर भारत के अपेक्षाकृत छोटे राज्यों अश्वायन एवं अश्वकायन की वीर सेनाओं ने कुनात, स्वात, बुनेर, पेशावर (आजका) में सिकंदर की सेनाओं को भयानक टक्कर दी। मस्सागा (मत्स्यराज) राज्य में तो महिलाएं तक उसके सामने खड़ी हो गईं, पर धूर्त और धोखे से वार करने वाले यवनी (यूनानियों) ने मत्स्यराज के सामने संधि का नाटक करके उन पर रात में हमला किया और उस राज्य की राजमाता, बच्चों सहित पूरे राज्य को उसने तलवार से काट डाला। यही हाल उसने अन्य छोटे राज्यों में किया। मित्रता संधि की आड़ में अचानक आक्रमण कर कई राजाओं को बंधक बनाया। भोले-भाले भारतीय राजा उसकी चाल का शिकार होते रहे। अंत में उसने गांधार-तक्षशिला पर हमला किया।

ॐ को क्यों माना जाता है महामंत्र, जानिये बोलने के क्या हैं फायदे ?

          

                      ॐ को क्यों माना जाता है महामंत्र, जानिये बोलने के क्या हैं फायदे ?


सनातन धर्म और ईश्वर में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति देव उपासना के दौरान शास्त्रों, ग्रंथों में या भजन और कीर्तन के दौरान ऊं महामंत्र को कई बार पढ़ता, सुनता या बोलता है। धर्मशास्त्रों में यही ऊं प्रणव नाम से भी पुकारा गया है। असल में इस पवित्र अक्षर व नाम से गहरे अर्थ व दिव्य शक्तियां जुड़ीं हैं, जो अलग-अलग पुराणों और शास्त्रों में कई तरह से बताई गई हैं। खासतौर पर शिवपुराण में ऊं के प्रणव नाम से जुड़ी शक्तियों, स्वरूप व प्रभाव के गहरे रहस्य बताए हैं।
शिव पुराण के अनुसार – प्र यानी प्रपंच, न यानी नहीं और व: यानी तुम लोगों के लिए। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के सबसे अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है। यही वजह है कि ऊं को प्रणव नाम से जाना जाता है।
ॐ के जाप की शक्ति
 दूसरे अर्थों में प्रनव को ‘प्र’ यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली नव यानी नाव बताया गया है
– इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से’प्र – प्रकर्षेण,’न – नयेत् और व: युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव: बताया गया है। इसका सरल शब्दों में मतलब है हर भक्त को शक्ति देकर जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला होने से यह प्रणव है
– धार्मिक दृष्टि से परब्रह्म या महेश्वर स्वरूप भी नव या नया और पवित्र माना जाता  है। प्रणव मंत्र से उपासक नया ज्ञान और शिव स्वरूप पा लेता है। इसलिए भी यह प्रणव कहा गया है
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शिवपुराण की तरह अन्य हिन्दू धर्मशास्त्रों में भी प्रणव यानी ऊं ऐसा अक्षर स्वरूप साक्षात् ईश्वर माना जाता है और मंत्र भी। इसलिए यह एकाक्षर ब्रह्म भी कहलाता है। धार्मिक मान्यताओं में प्रणव मंत्र में त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव की सामूहिक शक्ति समाई है। यह गायत्री और वेद रूपी ज्ञान शक्ति का भी स्त्रोत माना गया है।
– आध्यात्मिक दर्शन है कि प्रणय यानी ऊं बोलने या ध्यान से शरीर, मन और विचारों पर शुभ प्रभाव होता है। वैज्ञानिक नजरिए से भी प्रणव मंत्र यानी ऊं बोलते वक्त पैदा हुई शब्द शक्ति और ऊर्जा के साथ शरीर के अंगों जैसे मुंह, नाक, गले और फेफड़ो से आने-जाने वाली शुद्ध वायु मानव शरीर के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। अनेक हार्मोन और खून के दबाव को नियंत्रित करती है। इसके असर से मन-मस्तिष्क शांत रहने के साथ ही खून के भी स्वच्छ होने से दिल भी सेहतमंद रहता है। जिससे मानसिक एकाग्रता व कार्य क्षमता बढ़ती है। व्यक्ति मानसिक और दिल की बीमारियों से मुक्त रहता है
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सुखासन में बैठकर चालीस मिनट प्रतिदिन ऊं का जप किया जाए तो सात दिन में ही अपनी प्रकृति में बदलाव आता महसूस होने लगता है। छह सप्ताह में तो पचास प्रतिशत तक बदलाव आ जाता है। ये लोग उन दो प्रतिशत लोगों में शुमार हो जाते हैं , जो संकल्प कर लें तो अपने से पचास गुना ज्यादा लोगों की सोच और व्यवहार में बदलाव ला सकते हैं
एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि व्यक्ति के इस स्तर तक पहुंचने में मंत्र जप और स्थिरता पूर्वक बैठने के दोनों ही कारण बराबर उपयोगी हैं। दोनों में से एक भी गड़बड़ हुआ तो कठिनाई हो सकती है। हमारे यहां तो पालथी लगाकर सब लोग बहुत आसानी से बैठ जाते हैं, जबकि बाहर के देशों में भी ध्यान की कक्षा में प्रवेश करने वाले व्यक्ति दीक्षा लेने के बाद जप और ध्यान सीखते समय ही बैठने की इस तकनीक का अभ्यास शुरू कर देते हैं
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सुखासन में बैठकर मंत्र जप करने से या विधिवत अजपा करने से (मन में लगातार जप)। उसके कामयाब होने के लक्षण दिखार्ई देने लगते हैं। वे लक्षण यह है कि मंत्र जिस देवता की आराधना में है, उसकी विशेषताएं साधक में दिखाई देने लगती हैं।
– दार्शनिक पाल ब्रंटन ने अपनी पुस्तक इन द सर्च ऑफ सीक्रेट इंडिया में उन साधु संतों के बारे में और उनकी साधना विधियों के बारे में लिखा है। पाल ब्रंटन ने लिखा है कि सिद्धों और चमत्कारी साधुओं की शक्ति सामथ्र्य का रहस्य बहुत कुछ उनके स्थिरता पूर्वक बैठने में था।
                                 RAUSHAN KUMAR

श्री मदभगवद् गीता के 9 सूत्र जिनमे छुपा है आपकी हर परेशानी का हल


                            श्री मदभगवद् गीता के 9 सूत्र जिनमे छुपा है आपकी हर परेशानी का हल


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धर्म ग्रंथों के अनुसार मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को भगवानश्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। इसलिए प्रतिवर्षइस तिथि को गीता जयंती का पर्व मनाया जाता है। गीता एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसकीजयंती मनाई जाती है,

गीता दुनिया के उन चंद ग्रंथों में शुमार है, जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं औरजीवन के हर पहलू को गीता से जोड़कर व्याख्या की जा रही है। इसके 18 अध्यायों केकरीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान केसामने आती हैं।  इस लेख में अगले पृष्ठों पर हम आपको गीता के 9 चुनिंदा प्रबंधनसूत्रों से रूबरू करवा रहे हैं जो आपके जीवन में बहुत काम आयेगे

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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
 मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
अर्थ– भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है।उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म नकरने के विषय में भी तू आग्रह न कर।
सूत्र– भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन से कहना चाहते हैं कि मनुष्यको बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करनाचाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथवह कर्म नहीं कर पाओगे। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिनाकिसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना काम करते रहो। फल देना, न देना वकितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी कापालनकर्ता है।
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योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
     सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
अर्थ– हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय मेंसमबुद्धि होकर योग युक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।
सूत्र– धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है।भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभका विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकरकाम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा।मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपनेकर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूराकरने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसेटाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
     सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
अर्थ– हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय मेंसमबुद्धि होकर योग युक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।
सूत्र– धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है।भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभका विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकरकाम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा।मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपनेकर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूराकरने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसेटाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
     सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
अर्थ– हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय मेंसमबुद्धि होकर योग युक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।
सूत्र– धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य। धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है।भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभका विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकरकाम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा।मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपनेकर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूराकरने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसेटाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।
Geeta-Updesh

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नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।
अर्थ– योग रहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावनाभी नहीं होती। ऐसे भावना रहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसेसुख कहां से मिलेगा।
सूत्र – हर मनुष्य की इच्छा होती है कि उसे सुख प्राप्त हो, इसके लिए वह भटकतारहता है, लेकिन सुख का मूल तो उसके अपने मन में स्थित होता है। जिस मनुष्य कामन इंद्रियों यानी धन, वासना, आलस्य आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना(आत्मज्ञान) नहीं होती। और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भीप्रकार से शांति नहीं मिलती और जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहां से प्राप्तहोगा। अत: सुख प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है
Srimad-Bhagwad-Gita-Thoughts-in-Hindi

 विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
  निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।
अर्थ जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकाररहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।
सूत्र – यहां भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामनाको रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए शांति प्राप्त करने के लिएसबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा। हम जो भी कर्म करतेहैं, उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं। अपनी पसंद केपरिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है। वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादाअशांत हो जाता है। मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता सेअपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।
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न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
  कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।
अर्थ कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृतिके अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसकेपरिणाम भी देती है।
सूत्र– बुरे परिणामों के डर से अगर ये सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे तो ये हमारी मूर्खता है। खालीबैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समयकी हानि के रूप में मिलता है। सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन हैं, वो हमसे अपनेअनुसार कर्म करवा ही लेगी। और उसका परिणाम भी मिलेगा ही। इसलिए कभी भी कर्म के प्रतिउदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहनाचाहिए!
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नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
   शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।
अर्थ– तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने कीअपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।
सूत्र– श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्तकरना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना। जो लोग कर्म नहीं करते, उनसे श्रेष्ठ वेलोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किए तो शरीरका पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वोपूरा करना ही चाहिए।
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यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:!
 स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थ श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करनेलगते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसकाअनुसरण करते हैं।
सूत्र– यहां भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि श्रेष्ठ पुरुष को सदैव अपने पद व गरिमा के अनुसार हीव्यवहार करना चाहिए, क्योंकि वह जिस प्रकार का व्यवहार करेगा, सामान्य मनुष्य भी उसी कीनकल करेंगे। जो कार्य श्रेष्ठ पुरुष करेगा, सामान्यजन उसी को अपना आदर्श मानेंगे। उदाहरण केतौर पर अगर किसी संस्थान में उच्च अधिकार पूरी मेहनत और निष्ठा से काम करते हैं तो वहां केदूसरे कर्मचारी भी वैसे ही काम करेंगे, लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तोकर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जाएंगे।



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 न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
 जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।
अर्थ ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रमअर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआऔर सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही कराए।
सूत्र– ये प्रतिस्पर्धा का दौर है, यहां हर कोई आगे निकलना चाहता है। ऐसे में अक्सरसंस्थानों में ये होता है कि कुछ चतुर लोग अपना काम तो पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपनेसाथी को उसी काम को टालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं या काम के प्रति उसके मनमें लापरवाही का भाव भर देते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति वही होता है जो अपने काम से दूसरों केलिए प्रेरणा का स्रोत बनता है। संस्थान में उसी का भविष्य सबसे ज्यादा उज्जवल भीहोता है।
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ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
म वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।
अर्थ– हे अर्जुन। जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरास्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सब प्रकारसे मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।
सूत्र– इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि संसार में जो मनुष्यजैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथकरते हैं। उदाहरण के तौर पर जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करतेहैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं,उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है। कंस ने सदैव भगवान को मृत्यु केरूप में स्मरण किया। इसलिए भगवान ने उसे मृत्यु प्रदान की। हमें परमात्मा को वैसेही याद करना चाहिए, जिस रुप में हम उसे पाना चाहते हैं।
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RAUSHAN KUMAR WAZIRGANJ